Friday, December 9, 2011

राम कथा पर बवाल क्यू ?

शिक्षा संस्थान और सैनिक स्कूलों में क्या फरक होता है ? शिक्षा संस्थान जहां उसमें दाखिला लेनेवाले छात्रों में ज्ञान हासिल करने का जज्बा पैदा करते हैं, स्वतंत्र चिंतन के लिए उन्हें तैयार करते हैं, उनकी सृजनात्मकता को नए पंख लगाने में मुब्तिला होते हैं, वही सैनिक स्कूलों की कोशिश ऐसे इन्सान रूपी रोबोट यानी यंत्रमानव बनाने की होती है, जो सोचें नहीं, बस अपने सीनियरों के आदेशों पर अमल करने के लिए हर वक्त तैयार रहें. लाजिम है कि विचारद्रोही प्रवृत्तियां समाज में जब भी हावी होती हैं, हम यही पाते हैं कि वे शिक्षा संस्थानों और सैनिक स्कूलों के फरक को मिटा देना चाहती हैं. वे ऐसे माहौल को बनाना चाहती हैं कि ज्ञान हासिल करने की पहली सीढ़ी- हर चीज़ पर सन्देह करने की प्रवृत्ति - से शिक्षा संस्थान में तौबा किया जा सके और वहां आज्ञाकारी रोबो का ही निर्माण हो.


दिल्ली के अकादमिक जगत में इन दिनों जारी विवाद को लेकर यही कहने का मन करता है और इसका ताल्लुक कन्नड एवं अंग्रेजी भाषा के मशहूर कवि, नाटककार एवं विद्वान प्रोफेसर ए के रामानुजन (1929-1993) के उस चर्चित निबंध ‘थ्री हण्ड्रेड रामायणाज: फाइव एक्जाम्पल्स एण्ड थाटस आन ट्रान्सलेशन’ यानी तीन सौ रामायण: पाँच उदाहरण और अनुवादों पर तीन विचार, से है जिसमें दक्षिण एवं दक्षिण पूर्व एशिया में विद्यमान रामायण कथाओं की विभिन्न प्रस्तुतियों की चर्चा की गयी है.

अपने अनुसन्धान में उन्होंने यह पाया था कि विगत 2,500 वर्षों में दक्षिण एवं दक्षिणपूर्व एशिया में रामायण की चर्चा तमाम अन्य भाषाओं, समूहों एवं इलाकों में होती आयी है.

मालूम हो कि अन्नामीज, बालीनीज, बंगाली, कम्बोडियाई, चीनी, गुजराती, जावानीज, कन्नड, कश्मीरी, खोतानीज, लाओशियन, मलेशियन, मराठी, उड़िया, प्राकृत, संस्कृत, संथाली, सिंहली, तमिल, तेलगु, थाई, तिब्बती आदि विभिन्न भाषाओं में रामकथा अलग अलग ढंग से सुनायी जाती रही है. उनके मुताबिक तमाम भाषाओं में रामकथा के एक से अधिक रूप मौजूद हैं. उन्होंने यह भी पाया था कि संस्कृत भाषा में भी 25 अलग अलग रूपों में (महाकाव्य, काव्य, पुराण, पुरानी दन्तकथात्मक कहानियां आदि) रामायण सुनायी जाती रही हैं.

वैसे यह बात सर्वविदित ही है कि दक्षिण एव दक्षिण पूर्व के देशों में रामकथाओं का प्रभाव किसी न किसी रूप में आज भी दृष्टिगोचर होता है. मिसाल के तौर पर इंडोनेशिया जैसे मुस्लिमबहुल मुल्क में सड़कें, बैंक, ट्रैवल एजेंसीज, या अन्य उद्यम मिलते हैं, जिनके नाम रामायण के पात्रों पर रखे गए हैं. लोकसंस्कृति में भी किस हद तक रामकथा का वजूद बना हुआ है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है.

इण्डोनेशिया में बच्चे के जनम पर ‘मोचोपाट’ नामक समारोह होता है. अगर परिवार हिन्दु है तो वह धार्मिक आयोजन कहलाता है और अगर परिवार गैरहिन्दु है तो उसे संस्कृति के हिस्से के तौर पर आयोजित किया जाता है. ‘मोचोपाट’ में एक जानकार व्यक्ति लोगों के बीच बैठ कर रामायण के अंश सुनाता है, और फिर श्रोतागणों में उस पर बहस होती है. कभी-कभी यह आयोजन दिन भर चलता है. मकसद होता है, परिवार में जो नया सदस्य जनमा है, वह रामायण के अग्रणी पात्रों की तरह बने. आठवीं-नवीं सदी में इण्डोनेशिया में पहुंची रामायण कथा जावानीज भाषा में लिखी गयी थी.

सवाल यह उठता है कि एक सच्चे भारतीय के लिए- रामकथा के यह विभिन्न रूप, जिसने अलग-अलग समुदायों, समूहों में पहुंच कर अलग-अलग रूप धारण किए हैं- यह हक़ीकत किसी अपमान का सबब बननी चाहिए, या मुल्क की बहुसांस्कृतिकता, बहुभाषिकता, बहुविधता को ‘सेलेब्रेट’ करने का एक अवसर होना चाहिए.

साफ है कि ऐसे लोग, जो भारत की साझी विरासत की हक़ीकत को आज तक जज्ब़ नहीं कर पाए हैं और भारत का भविष्य अपने खास इकहरे एजेण्डा के तहत ढालना चाह रहे हैं, उन्हें रामायण के इन विभिन्न रूपों की मौजूदगी की बात को कबूल करना भी नागवार गुजर रहा है और इसलिए उन्होंने इसे आस्था के मसले के तौर पर प्रोजेक्ट करने की कोशिश की है.

मालूम हो कि विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यापकों की अनुशंसा पर वर्ष 2006 में इस निबंध को पाठयक्रम में शामिल किया था. वर्ष 2008 में हिन्दुत्ववादी संगठनों की छात्रा शाखा ने इसे लेकर विरोध प्रदर्शन किया. उनका कहना था कि इस निबंध को पाठयक्रम से हटा देना चाहिए. अन्ततः मामला उच्चतम न्यायालय पहुंचा तब उसके निर्देश पर चार सदस्यीय कमेटी बनायी गयी, जिसके बहुमत ने यह निर्णय दिया कि प्रस्तुत निबंध को छात्रों को पढ़ाया जाना चाहिए, सिर्फ कमेटी के एक सदस्य ने इसका विरोध किया.

मामला वहीं खतम हो जाना चाहिए था, मगर जानबूझकर इस मसले को अकादमिक कौन्सिल के सामने रखा गया, जहां बैठे बहुलांश ने अपने होठों को सीले रखना ही मंजूर किया. फिलवक्त ‘बहुमत’ से इस निबंध को पाठयक्रम से हटा दिया गया है.

प्रस्तुत विवाद को लेकर प्रख्यात कन्नड साहित्यकार प्रो यू आर अनन्तमूर्ति के विचार गौरतलब हैं ‘‘भारत में हमेशा ही श्रुति, स्मृति और पुराणों में फरक किया जाता रहा है. अलग-अलग आस्थावानों के लिए अलग-अलग ढंग की श्रुतियां हैं, जो वेदों, कुराणों की तरह लगभग अपरिवर्तित रहती हैं. दूसरी तरफ स्मृति और पुराण गतिमान होते हैं और समय एवं संस्कृति के साथ बदलते हैं. भास जैसे महान कवियों ने महाभारत की समूची समस्या को बिना युद्ध के हल किया. यह बात विचित्र जान पड़ती है कि आधुनिक दौर में धार्मिक विश्वासों एवं आचारों का व्यवसायीकरण एवं विकृतिकरण किया जा रहा है. हमारे पुरखे आस्था, विश्वासों की जिस विविधता को सेलिब्रेट करते थे, उस सिलसिले को हम लोगों ने छोड़ दिया है.”

सवाल निश्चित ही महज एक निबंध का नहीं है. यह सोचने एवं तय करने की जरूरत है कि शिक्षा संस्थानों में पाठयक्रम तय करने का अधिकार अध्यापकों का अपना होगा या वहां दखलंदाजी करने की राज्य कारकों या गैरराज्यकारकों को खुली छूट होगी. निबंध को लेकर खड़ा विवाद दरअसल इस बात का परिचायक कि अकादमिक संस्थानों में विचारों के सैन्यीकरण का दौर लौट रहा है, जिस पर आस्था का मुलम्मा चढ़ाया जा रहा है. अभी ज्यादा दिन नहीं बीता जब शिवसेना के शोहदों ने मुंबई विश्वविद्यालय में पढ़ाये जा रहे रोहिण्टन मिस्त्री के उपन्यास ‘सच ए लांग जर्नी’ को हटाने में कामयाबी हासिल की थी, तो कुछ अन्य अतिवादी तत्वों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद जेम्स लेन की ‘शिवाजी’ पर प्रकाशित किताब पर सूबा महाराष्ट्र में अघोषित पाबन्दी लगा रखी है.

ऐसे सभी लोग, जो शिक्षा संस्थानों को खास ढंग से ढालना चाहते हैं, उन्हें इस वर्ष के नोबेल पुरस्कार विजेताओं पर निगाह डालनी चाहिए. इस वर्ष का रसायन का नोबेल इस्त्राएली मूल के डैनिएल शेश्टमान को क्वासिक्रिस्टल्स की खोज को लेकर मिला है, जिसने पदार्थ की स्थापित धारणाओं को भी चुनौती दी है.

मालूम हो कि जब प्रोफेसर शेश्टमान ने पहली दफा यह संकल्पना रखी तो ऐसा वाहियात विचार रखने के लिए विश्वविद्यालय ने उन्हें रिसर्च ग्रुप छोड़ने के लिए कहा, मगर वह डटे रहे. सभी मानवीय ज्ञान क्या मानव की इसी अनोखी आदत से विकसित नहीं हुआ है- सभी चीजों पर सन्देह करो.

निश्चित ही शिक्षा संस्थानों को कुन्द जेहन रोबोट के निर्माण की फैक्टरी के तौर पर देखनेवाले लोग इस सच्चाई को कैसे जान सकते हैं !


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